Tuesday, May 12, 2020

Migrant Labourer

मिट चली हैं लकीरें मेरी हथेली से
अपनी तक़दीर से आज़ाद हो चला हूँ मैं
खूं जम गया है पेशानी पे पसीने की जगह
अपने हुनर का खुद शाहकार बन चला हूँ मैं

चाँद सिकों पे बिकता था कभी बाज़ारों में
अब मेरी भूख सियसत के दहकन भरती है
मेरे ज़ख़्मों को दुनिया पे नुमाया कर के
मेरे खैरख़्वाहों की तिजोरियाँ भारती है
मेरी तस्वीर यूँ हर ओर लगाई जाती है
जैसे नुमाइश का सामान बन चला हूँ मैं
अपने हुनर का खुद शाहकार बन चला हूँ मैं 

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