मिट चली हैं लकीरें मेरी हथेली से
अपनी तक़दीर से आज़ाद हो चला हूँ मैं
खूं जम गया है पेशानी पे पसीने की जगह
अपने हुनर का खुद शाहकार बन चला हूँ मैं
चाँद सिकों पे बिकता था कभी बाज़ारों में
अब मेरी भूख सियसत के दहकन भरती है
मेरे ज़ख़्मों को दुनिया पे नुमाया कर के
मेरे खैरख़्वाहों की तिजोरियाँ भारती है
मेरी तस्वीर यूँ हर ओर लगाई जाती है
जैसे नुमाइश का सामान बन चला हूँ मैं
अपने हुनर का खुद शाहकार बन चला हूँ मैं
अपनी तक़दीर से आज़ाद हो चला हूँ मैं
खूं जम गया है पेशानी पे पसीने की जगह
अपने हुनर का खुद शाहकार बन चला हूँ मैं
चाँद सिकों पे बिकता था कभी बाज़ारों में
अब मेरी भूख सियसत के दहकन भरती है
मेरे ज़ख़्मों को दुनिया पे नुमाया कर के
मेरे खैरख़्वाहों की तिजोरियाँ भारती है
मेरी तस्वीर यूँ हर ओर लगाई जाती है
जैसे नुमाइश का सामान बन चला हूँ मैं
अपने हुनर का खुद शाहकार बन चला हूँ मैं
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