Friday, July 2, 2010

अधूरी पेंटिंग

अक्सर सुबह सवेरे जब
दरीचे के बंद कांच को भेद कर
आफताब की सूआएं
पर्दों की ओत से 
मेरे बिस्तर की सलवटों में
बीती शब् की शर्गोशियाँ तलाशती हैं
रतजगे के बिखरे परचम
आँखों पे आ गिरते हैं
कहते हैं-
इससे पहले की तिलमिलाती धुप
निगल ले  अध्बुझे चाँद की ठंडी आंच
और झुलस जाये 
उम्मीदों के कैनवास पर
ओस की लॉस 
और आस के ब्रुश से उभारा हुआ
वो अधुरा सा पोर्ट्रेट
और भूल जाओ तुम
तुक उन बेतरतीब लकीरों का-
अक्स उस चेहरे का
जो खाकों में ढलते ढलते रह गया
आँखों का वो नूर 
जो पलकों के झपकते ही ओझल हो गया
नज़र की हद्दों से-
कैसे खोने दे सकते हैं तुम इन्हें?
इन्हें फिर तलाशना है
तारीक शब्गाहों में
तो लो ओढ़ लो नींद की चादर
और लौट जाओ शब् के उसी पहर में
जहाँ जगती आँखों ने 
एक ख्वाब टांग दिया था 
चाँद की खूँटी पर!
जाओ उतार लाओ उसे
और सहेज लो 
तकिये के निचे-
जहाँ बाकि ख्वाब सो रहे हैं.
फिर कभी रतजगे में
ये पेंटिंग भी पूरी कर लेना! 



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