बहुत दिनों से सन्नाटा है
ना कोई लफ्ज़ गिरे
ना हवाओं पे तैरती गुफ्तगू ही पहुँची
खामोशी भी चुप है
कुछ कहती नही
आवाज़ में सिमटी मुलाक़ात भी
अब मयस्सर नही
क्या हुआ
अल्फाज़ों के सिरे खुल गये...
या शब्दों की डोर
चिटक गयी कहीं?
बहुत दिनों से सन्नाटा है
आपकी आहट भी नही गूँजी
कारवाँ का सफ़र तो इधर कभी रहा ही नही
अब तो इक्का दुक्का मुसाफिर भी
इस राह से गुज़रते नही...
पथ्हर चुभते होंगे शायद,
ज़मीन पे पाओं रखते ही...
पर अब तो बहुत दिन हुए
किसी चुभन या कसक ने भी साँस नही ली यहाँ...
क्या हुआ-
रह भूल गयी,
या अब पांच्छियो ने
उड़ते रहने की ही ठानी है?
बहुत दीनो से सन्नाटा है-
किसी परवाज़ का अक्स भी नही उतरा
ढलती धूप के साथ फलक से...
शायद, अब इस शजर पे घोंसले नही बनेंगे कभी!